बोफोर्स स्कैंडल (1987): भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी हथियार घोटाला

बोफोर्स स्कैंडल 1987 में भारतीय राजनीति को हिलाकर रख देने वाला एक विशाल भ्रष्टाचार मामला था जिसने न केवल तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार को गिराया बल्कि भारतीय राजनीति की दिशा को भी बदल दिया। यह घोटाला रक्षा खरीद में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है और आज भी इसकी गूंज भारतीय राजनीति में सुनाई देती है। [1][2][3]
घोटाले की पृष्ठभूमि और शुरुआत
रक्षा आधुनिकीकरण की आवश्यकता
1980 के दशक में भारतीय सेना के तोपखाने को आधुनिकीकरण की तत्काल आवश्यकता थी। पाकिस्तान द्वारा अमेरिकी M198 हॉवित्जर तोपों की खरीद की खबरों के बाद भारत ने 1977 में विभिन्न देशों से 155 मिमी हॉवित्जर तोपों के लिए प्रस्ताव मांगे। प्रारंभिक चरणों में सात निर्माताओं से प्रस्ताव आए, जिनमें से चार को फील्ड ट्रायल के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया: स्वीडन का FH-77B (बोफोर्स), ब्रिटेन-जर्मनी-इटली का FH-70, दक्षिण अफ्रीका का GHN-45, और फ्रांस का GIAT-155 TR।[4]
1985 तक FH-70 और GHN-45 को परीक्षणों से बाहर कर दिया गया, और अंततः बोफोर्स का FH-77B चुना गया। यह निर्णय तकनीकी गुणवत्ता के आधार पर लिया गया था, लेकिन बाद में इसमें भ्रष्टाचार के आरोप सामने आए।[4]
अनुबंध पर हस्ताक्षर
24 मार्च 1986 को भारत सरकार और स्वीडिश हथियार निर्माता कंपनी AB बोफोर्स के बीच 1,437 करोड़ रुपये (285 मिलियन डॉलर) का अनुबंध हस्ताक्षरित हुआ। इस अनुबंध के तहत 410 155 मिमी हॉवित्जर फील्ड गन और उनके गोला-बारूद की आपूर्ति होनी थी। यह अनुबंध उस समय भारत की सबसे बड़ी हथियार खरीद थी और स्वीडन के लिए भी सबसे बड़ा हथियार निर्यात सौदा था।[2][5][4]
अनुबंध में स्पष्ट रूप से उल्लेख था कि इस सौदे में कोई मध्यस्थ या दलाल शामिल नहीं होगा। भारत सरकार की नीति के अनुसार रक्षा खरीद में मध्यस्थों की भूमिका प्रतिबंधित थी, और बोफोर्स कंपनी ने इस शर्त को मानने का वचन दिया था।[6][7]
घोटाले का खुलासा
स्वीडिश रेडियो की सनसनीखेज रिपोर्ट
16 अप्रैल 1987 को स्वीडिश रेडियो (Sveriges Radio) ने एक सनसनीखेज खबर प्रसारित की जिसने पूरी दुनिया को झकझोर दिया। इस रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि बोफोर्स कंपनी ने भारतीय राजनेताओं और रक्षा अधिकारियों को रिश्वत दी थी ताकि वे इस सौदे को पक्का कर सकें। रिपोर्ट में दावा किया गया कि लगभग 64 करोड़ रुपये (40 मिलियन डॉलर) की रिश्वत दी गई थी।[2][5][4][8]
यह खुलासा एक व्हिसलब्लोअर इंगवार ब्रैट (Ingvar Bratt) के बयान पर आधारित था, जो बोफोर्स का पूर्व कर्मचारी था। स्वीडिश पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्ट्रोम (Sten Lindström), जिन्हें ‘स्टिंग’ के नाम से जाना जाता था, इस जांच का नेतृत्व कर रहे थे।[1][9][10]
पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम की भूमिका
इस समय जिनेवा में एक अन्य स्टोरी कवर कर रही भारतीय पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम ने इस खबर को उठाया और इसकी गहरी जांच शुरू की। उन्होंने स्वीडिश पुलिस अधिकारियों से संपर्क किया और महत्वपूर्ण दस्तावेज हासिल किए। अगस्त 1989 में स्टेन लिंडस्ट्रोम ने उन्हें स्टॉकहोम में दस्तावेजों का एक ट्रांच दिया, जिसमें 15 पेज का “सहमत सारांश” भी था जो बोफोर्स और भारतीय अधिकारियों के बीच गुप्त बैठकों के बारे में था।[1][9][4][11]
मुख्य आरोपी और मध्यस्थ
ऑटावियो क्वात्रोची (Ottavio Quattrocchi)
इतालवी व्यवसायी ऑटावियो क्वात्रोची इस घोटाले का मुख्य आरोपी था। क्वात्रोची का स्नैमप्रोजेटी (Snamprogetti) नामक पेट्रोकेमिकल कंपनी में काम था और वह राजीव गांधी के परिवार के नजदीकी मित्र माने जाते थे। उनकी पत्नी मारिया क्वात्रोची सोनिया गांधी की मित्र थी और दोनों परिवारों के बीच गहरे संबंध थे।[3][12][13][14]
आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण के अनुसार क्वात्रोची को AE Services Limited नामक कंपनी के माध्यम से 7.3 मिलियन डॉलर का भुगतान किया गया। यह राशि स्विस बैंक में विभिन्न खाताओं में स्थानांतरित की गई, जिनमें कोल्बार इन्वेस्टमेंट्स लिमिटेड और वेटेल्सन ओवरसीज जैसी शेल कंपनियों के खाते शामिल थे।[6][15][3]
विन छाडा (Win Chadha)
विन छाडा भारत में बोफोर्स का पुराना एजेंट था। उसे अनाट्रॉनिक जनरल कंपनी प्राइवेट लिमिटेड और स्वेन्स्का इंक (पनामा में पंजीकृत) के माध्यम से लगभग 32.66 करोड़ रुपये का कमीशन दिया गया था। स्वेन्स्का इंक वास्तव में छाडा की फ्रंट कंपनी थी जो कर चोरी और मध्यस्थों पर प्रतिबंध को दरकिनार करने के लिए बनाई गई थी।[3][12][10][6]
छाडा की मृत्यु 2001 में हो गई थी, लेकिन उसके खिलाफ आरोप बने रहे। 2011 में आयकर न्यायाधिकरण ने पुष्टि की कि उसे अवैध रूप से कमीशन का भुगतान किया गया था।[6][3]
हिंदुजा बंधु
हिंदुजा बंधुओं के नाम भी इस घोटाले में आए थे। उनकी कंपनी पिटको मोरेस्को के स्विस बैंक खाते की जानकारी स्विस अधिकारियों द्वारा दी गई थी, लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।[16][17][18]
सरकारी प्रतिक्रिया और आरोप-प्रत्यारोप
राजीव गांधी का इनकार
स्वीडिश रेडियो की रिपोर्ट के चार दिन बाद, 20 अप्रैल 1987 को राजीव गांधी ने लोकसभा में आरोपों से साफ इनकार किया। उन्होंने कहा कि इस सौदे में कोई मध्यस्थ शामिल नहीं था और कोई रिश्वत नहीं दी गई थी। राजीव गांधी ने कहा, “न तो सरकार और न ही मैं व्यक्तिगत रूप से इन आरोपों से प्रभावित हूं। हमारी अंतरात्मा साफ है।”[2][5]
गुप्त बैठकें और कवर-अप
चित्रा सुब्रमण्यम की नई किताब ‘बोफोर्सगेट’ के अनुसार, 15-17 सितंबर 1987 को रक्षा मंत्रालय में बोफोर्स अधिकारियों और भारतीय नौकरशाहों के बीच गुप्त बैठकें हुईं। इन बैठकों का मकसद राजीव गांधी को सभी आरोपों से बचाने के तरीके तय करना था। बोफोर्स टीम को सरदार पटेल मार्ग के एक पांच सितारा होटल में ठहराया गया था जहां उनके कमरों को “सभी के लिए प्रतिबंधित” रखा गया था।[1][9]
भारतीय टीम में एसके भटनागर, पीके कार्था, गोपी अरोड़ा, एनएन वोहरा जैसे वरिष्ठ अधिकारी शामिल थे, जबकि बोफोर्स की ओर से पर ओवे मॉर्बर्ग और लार्स गोह्लिन नेतृत्व कर रहे थे।[9][1]
संसदीय जांच समिति (JPC)
समिति का गठन
स्वीडिश रेडियो के खुलासे के लगभग चार महीने बाद, 6 अगस्त 1987 को संयुक्त संसदीय समिति (JPC) का गठन किया गया। इस समिति के अध्यक्ष कांग्रेसी नेता बी. शंकरानंद को बनाया गया। यह भारत की पहली JPC थी जो किसी भ्रष्टाचार के मामले की जांच के लिए बनाई गई थी।[2][19][20][21]
विपक्ष का बहिष्कार
विपक्षी दलों ने इस समिति का बहिष्कार किया क्योंकि उनका मानना था कि समिति के अधिकार सीमित हैं और यह सिर्फ एक आंखमिचौनी है। विपक्ष चाहता था कि समिति को विदेश जाने और स्वीडन तथा स्विट्जरलैंड में गवाहों से बयान लेने की अनुमति हो, लेकिन सरकार ने इसे मंजूरी नहीं दी।[20][22]
JPC की रिपोर्ट
18 जुलाई 1989 को JPC ने अपनी रिपोर्ट संसद में पेश की। समिति ने निष्कर्ष निकाला कि “इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इस सौदे में कोई मध्यस्थ शामिल था।” यह रिपोर्ट व्यापक रूप से एक सफाईकारी मानी गई।[2][10][19]
JPC के सदस्य अजित पांजा ने बाद में अपने असहमति पत्र में कहा कि समिति के अध्यक्ष ने सच्चाई छुपाने की कोशिश की थी। उन्होंने अपने 20 पेज के असहमति नोट में लिखा कि राजीव गांधी ने बोफोर्स कंपनी के पक्ष में असाधारण रुचि दिखाई थी।[19]
राजनीतिक प्रभाव
1989 के चुनावी परिणाम
बोफोर्स घोटाले का सबसे बड़ा राजनीतिक प्रभाव 1989 के लोकसभा चुनावों में देखा गया। कांग्रेस पार्टी, जिसने 1984 में 410 सीटें जीती थीं, को करारी हार का सामना करना पड़ा। राजीव गांधी की सरकार गिर गई और वी.पी. सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी।[5][7][23]
यह पहली बार था जब कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इतनी बड़ी हार झेलनी पड़ी थी। बोफोर्स कांग्रेस के लिए उतना ही नकारात्मक प्रभाव साबित हुआ जितना बाबरी मस्जिद विध्वंस भाजपा के लिए था।[24]
कांग्रेस पार्टी पर दीर्घकालिक प्रभाव
बोफोर्स घोटाले ने कांग्रेस पार्टी की छवि को स्थायी नुकसान पहुंचाया। 1984 के बाद कांग्रेस को कभी भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और पार्टी को गठबंधन की राजनीति करने पर मजबूर होना पड़ा। घोटाले ने स्वतंत्रता संग्राम के समय से चली आ रही कांग्रेस की स्वच्छ छवि को धूमिल कर दिया।[24]
अमिताभ बच्चन, जो राजीव गांधी के मित्र थे और लोकसभा सदस्य भी थे, को भी इस घोटाले में नाम आने पर जुलाई 1987 में अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।[10]
CBI जांच और कानूनी कार्रवाई
वी.पी. सिंह सरकार की कार्रवाई
सत्ता में आने के बाद वी.पी. सिंह की सरकार ने बोफोर्स मामले में तेज कार्रवाई शुरू की। 26 दिसंबर 1989 को बोफोर्स कंपनी को भारत के साथ भविष्य में कोई भी रक्षा अनुबंध करने से प्रतिबंधित कर दिया गया।[2]
22 जनवरी 1990 को केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने इस मामले में औपचारिक शिकायत दर्ज की। साथ ही 26 जनवरी 1990 को स्विस अधिकारियों ने स्वेन्स्का और AE Services के बैंक खातों को फ्रीज कर दिया।[7][2]
चार्जशीट और आरोप
1999 में CBI ने ऑटावियो क्वात्रोची, विन छाडा, पूर्व रक्षा सचिव एसके भटनागर, और बोफोर्स के पूर्व अध्यक्ष मार्टिन अर्डबो के खिलाफ चार्जशीट दायर की। आरोप में धोखाधड़ी, जालसाजी, आपराधिक षड्यंत्र, और शक्ति का दुरुपयोग शामिल था।[25][13][7]
2000में दिल्ली की विशेष अदालत के जज अजित भरिहोके के समक्ष मामला चला। राजीव गांधी को “अभियुक्त जिसे मुकदमे के लिए नहीं भेजा गया” के रूप में सूचीबद्ध किया गया था क्योंकि 1991 में उनकी हत्या हो गई थी।[10]
स्विस बैंक जांच
स्विस अधिकारियों के सहयोग से CBI ने पैसे के प्रवाह का पता लगाया। जांच में पता चला कि बोफोर्स ने भारत से पहली किश्त मिलने के बाद 3 सितंबर 1986 को नॉर्डफिनांज बैंक, ज्यूरिख में AE Services के खाते में 7.343 मिलियन डॉलर भेजे थे। यह राशि भारत द्वारा दी गई अग्रिम राशि का ठीक 3 प्रतिशत थी।[15]
इसके बाद यह पैसा विभिन्न खाताओं में घुमाया गया। सितंबर 1986 में यह पैसा कोल्बार इन्वेस्टमेंट्स लिमिटेड (पनामा में पंजीकृत कंपनी) के यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड, जिनेवा के खाते में भेजा गया। 25 जुलाई 1988 को फिर से वेटेल्सन ओवरसीज SA के खाते में स्थानांतरित किया गया।[15]
आयकर न्यायाधिकरण का फैसला
2011 का महत्वपूर्ण निर्णय
2011 में आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि ऑटावियो क्वात्रोची और विन छाडा को बोफोर्स सौदे में अवैध रूप से 41 करोड़ रुपये का कमीशन दिया गया था। न्यायाधिकरण ने कहा कि भारत सरकार की नीति रक्षा सौदों में मध्यस्थों की अनुमति नहीं देती थी, इसलिए ये भुगतान पूर्णतया अवैध थे।[3][12][6][26]
न्यायाधिकरण के न्यायिक सदस्य आर.पी. तोलानी और लेखाकार सदस्य आर.सी. शर्मा ने अपने आदेश में कहा कि “कानून के राज को लागू करने के लिए आयकर विभाग द्वारा सभी संबंधित आयकर उल्लंघनों को तार्किक अंत तक पहुंचाना वांछनीय था।” उन्होंने चेतावनी दी कि इस मामले में निष्क्रियता से यह धारणा बनेगी कि “भारत एक कमजोर राष्ट्र है और कोई भी व्यक्ति इसके कर कानूनों से छेड़छाड़ कर सकता है।”[12]
मामले का अंत और बाद की स्थिति
राजीव गांधी की सफाई
2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने राजीव गांधी को मरणोपरांत सभी आरोपों से मुक्त कर दिया। अदालत ने कहा कि उनके खिलाफ रिश्वत लेने का कोई सबूत नहीं मिला था। हालांकि, विपक्षी नेताओं का कहना था कि राजीव गांधी ने बोफोर्स कंपनी के पक्ष में असामान्य रुचि दिखाई थी।[19][27]
2011 में मामले की समाप्ति
2011 में भारतीय अधिकारियों ने बोफोर्स मामले को आधिकारिक रूप से बंद कर दिया। इस समय तक अधिकांश मुख्य आरोपी की मृत्यु हो चुकी थी। राजीव गांधी की 1991 में हत्या हो गई थी, विन छाडा की 2001 में मृत्यु हो गई थी, और ऑटावियो क्वात्रोची की 2013 में मृत्यु हो गई थी।[9][13]
नवीन घटनाक्रम – 2025
2025 में CBI ने अमेरिका को एक न्यायिक अनुरोध भेजा है जिसमें निजी जांचकर्ता माइकल हर्शमैन से बोफोर्स घोटाले की ताजा जानकारी मांगी गई है। हर्शमैन ने इस 64 करोड़ रुपये के घोटाले के बारे में नई जानकारी साझा करने की इच्छा व्यक्त की है।[28][5]
चित्रा सुब्रमण्यम की नई किताब ‘बोफोर्सगेट’ के प्रकाशन के साथ यह मामला फिर से चर्चा में आया है। उनके अनुसार अभी भी स्विस सरकार द्वारा भेजे गए दस्तावेजों के कई बक्से अनखोले पड़े हैं जिनमें घोटाले की और जानकारी हो सकती है।[29]
तकनीकी पहलू और हथियारों का प्रदर्शन
कारगिल युद्ध में बोफोर्स तोपों की भूमिका
विडंबना यह है कि जिस हथियार की खरीद में भ्रष्टाचार का आरोप लगा, वही हथियार 1999 के कारगिल युद्ध में भारतीय सेना के लिए अमूल्य साबित हुई। बोफोर्स की 155 मिमी हॉवित्जर तोपों ने ऊंचाई पर स्थित पाकिस्तानी ठिकानों को निशाना बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसकी रेंज और सटीकता ने भारतीय सेना को रणनीतिक लाभ दिया।[9][23]
यह तथ्य बोफोर्स घोटाले की जटिलता को दर्शाता है – तकनीकी रूप से यह एक उत्कृष्ट हथियार था, लेकिन इसकी खरीद में भ्रष्टाचार के कारण राजनीतिक हानि हुई।
मीडिया की भूमिका और जांचकारी पत्रकारिता
चित्रा सुब्रमण्यम का योगदान
बोफोर्स घोटाले में भारतीय पत्रकारिता के लिए एक नया अध्याय था। चित्रा सुब्रमण्यम की जांचकारी पत्रकारिता ने इस मामले को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उजागर किया। उन्होंने द हिंदू अखबार के लिए लिखकर इस मामले की तह तक जाने का काम किया।[4][23][11]
स्वीडन में रहकर उन्होंने स्विस बैंक के दस्तावेज, बोफोर्स के आंतरिक कागजात और स्वीडिश पुलिस की जांच रिपोर्ट हासिल की। उनकी रिपोर्टिंग ने सिद्ध किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वतंत्र मीडिया की क्या भूमिका हो सकती है।[23]
प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला
राजीव गांधी सरकार ने बोफोर्स के आरोपों के बाद 29 अगस्त 1988 को मानहानि विधेयक पेश किया जो अगले दिन ही पारित हो गया। यह विधेयक मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए लाया गया था ताकि वे इस मामले पर और जानकारी प्रकाशित न कर सकें। यह कदम प्रेस की स्वतंत्रता पर सीधा हमला माना गया।[7]
अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव
स्वीडन पर प्रभाव
बोफोर्स घोटाले का स्वीडन के हथियार उद्योग पर गहरा प्रभाव पड़ा। स्वीडन की छवि एक तटस्थ और भ्रष्टाचार मुक्त देश की थी, लेकिन इस घोटाले ने उसकी साख को नुकसान पहुंचाया। स्वीडिश हथियार निर्माताओं को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कठिनाई का सामना करना पड़ा।[23]
दिलचस्प बात यह है कि स्वीडिश प्रधानमंत्री ओलाफ पाल्मे की हत्या मार्च 1986 में बोफोर्स अनुबंध पूरा होने के ठीक एक महीने पहले हुई थी। कुछ षड्यंत्र सिद्धांतकारों ने इसे बोफोर्स से जोड़ने की कोशिश की, हालांकि कोई ठोस सबूत नहीं मिला।[10]
CIA की रिपोर्ट
अमेरिकी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) के 1980 के दशक के अंत के गुप्त मूल्यांकन के अनुसार, स्वीडिश सरकार ने राजीव गांधी की छवि बचाने के लिए जांच को धीमा कर दिया था। CIA दस्तावेजों में कहा गया था कि स्टॉकहोम “गांधी को स्वीडिश लीक से हुई परेशानी से बचाना चाहता था।”[30]
घोटाले की विरासत और सबक
राजनीतिक भ्रष्टाचार की समझ
बोफोर्स घोटाले ने भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार की समझ को बदल दिया। इससे पहले भ्रष्टाचार के मामले स्थानीय स्तर के थे, लेकिन बोफोर्स ने दिखाया कि सबसे ऊंचे स्तर पर भी भ्रष्टाचार हो सकता है। यह घोटाला भारत में आने वाले अन्य बड़े घोटालों का प्रारूप बना।[24]
रक्षा खरीद में सुधार
बोफोर्स घोटाले के बाद भारत में रक्षा खरीद की नीतियों में व्यापक सुधार किए गए। मध्यस्थों पर कड़े नियम बनाए गए और पारदर्शिता की व्यवस्था मजबूत की गई। रक्षा खरीद प्रक्रिया (Defence Procurement Procedure) में कई बदलाव किए गए ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों।
संसदीय निगरानी की मजबूती
बोफोर्स के बाद संसदीय समितियों की भूमिका और अधिकार बढ़ाए गए। Joint Parliamentary Committee (JPC) की संस्था को मजबूत बनाया गया और उसे और व्यापक अधिकार दिए गए। आज भी बड़े घोटालों की जांच के लिए JPC का गठन किया जाता है।
समसामयिक प्रासंगिकता
आज के संदर्भ में बोफोर्स
आज 2025 में भी बोफोर्स घोटाला प्रासंगिक है क्योंकि यह दिखाता है कि भ्रष्टाचार किस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सकता है। रक्षा खरीद में पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी 1987 में थी।[28][5]
रफाल विमान सौदे जैसे आधुनिक रक्षा अनुबंधों में भी बोफोर्स के सबक की गूंज सुनाई देती है। विपक्षी दल अक्सर नए रक्षा सौदों की तुलना बोफोर्स से करते हैं।[31]
न्यायव्यवस्था की भूमिका
बोफोर्स मामले ने दिखाया कि न्यायव्यवस्था की स्वतंत्रता कितनी महत्वपूर्ण है। हालांकि आयकर न्यायाधिकरण ने 2011 में स्पष्ट निष्कर्ष निकाले, लेकिन CBI की जांच में कई कमियां रहीं। अदालतों ने राजीव गांधी को साफ चिट दी, लेकिन मध्यस्थों की भूमिका स्थापित हुई।
निष्कर्ष
बोफोर्स स्कैंडल भारतीय राजनीति का वाटरगेट था जिसने न केवल एक सरकार गिराई बल्कि पूरी राजनीतिक व्यवस्था को झकझोर दिया। यह घोटाला दिखाता है कि लोकतांत्रिक संस्थानों की मजबूती, पारदर्शी गवर्नेंस, और स्वतंत्र मीडिया कितना महत्वपूर्ण है।[5][23][24]
64 करोड़ रुपये की रिश्वत आज के मानकों से छोटी लग सकती है, लेकिन इसका राजनीतिक प्रभाव आज भी कायम है। कांग्रेस पार्टी को इस घोटाले से जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई आज तक नहीं हो सकी है। पार्टी को 1984 के बाद कभी भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।[3][24]
यह मामला यह भी दिखाता है कि भ्रष्टाचार कितना जटिल हो सकता है – तकनीकी रूप से उत्कृष्ट हथियार (जो कारगिल में कामयाब रहे) की खरीद में भी राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण राष्ट्रीय नुकसान हो सकता है।[9][23]
बोफोर्स की विरासत आज भी भारतीय राजनीति, रक्षा नीति, और मीडिया की स्वतंत्रता के संदर्भ में प्रासंगिक है। यह एक ऐतिहासिक घटना है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में प्रेरणा का काम करती रहेगी।
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