तरलता से बेड़ियाँ: कैसे ब्रिटिशों ने जाति को संहिताबद्ध किया


परिचय

ब्रिटिश राज से पहले भारत में जाति प्रणाली विभिन्न क्षेत्रीय सामाजिक समूहों, पेशेवर हलकों और रिश्तेदार जातियों का जटिल और गतिशील जाल थी। पहचान अक्सर लचीली होती थी, समुदाय भूमि स्वामित्व, विवाह संबंध और स्थानीय सत्ता गतिशीलताओं के माध्यम से अपना दर्जा बढ़ाया या खोया करते थे। ब्रिटिशों ने इस जटिल ताने-बाने को देखा और छह दशकों में जनगणना, जातिवैज्ञानिक सर्वेक्षण, कानूनी प्रावधानों और प्रशासनिक नीतियों के माध्यम से इसे कठोर श्रेणियों में बदल दिया।

यह लेख 1871 से 1931 के बीच ब्रिटिशों द्वारा जाति को कोडित करने के प्रमुख चरणों, कारकों और तंत्रों को उजागर करता, और इसके भारतीय समाज पर स्थायी प्रभाव का विश्लेषण करता।


1. पहली जनगणना और आधिकारिक श्रेणियों का आरंभ (1871–1881)

ब्रिटिश साम्राज्य ने 1871 में पहली समग्र जनगणना कराई, जिसने जाति गणना का प्रशासनिक आरंभ चिन्हित किया।

उससे पहले, प्रांतीय सर्वेक्षण भूमि और राजस्व पर ध्यान देते थे, लेकिन सामाजिक पहचान में कम ही रुचि दिखाई जाती थी।

  • 1871 की जनगणना में आयु, लिंग, धर्म और जाति को व्यापक रूप में दर्ज किया गया।
  • 1881 तक, जिला स्तर के कलेक्टरों ने “मुख्य जातियाँ” और उनके प्राथमिक पेशे सूचीबद्ध करना शुरू कर दिया।
  • लचीली स्थानीय पहचानें स्थिर “जातियों” में जुबानी सुनी कहानियों या पुराने संसाधनों के आधार पर सन्निहित कर दी गईं।

इस प्रारंभिक प्रयास ने एक नौकरशाही जुनून की नींव रखी: एक बार कोई श्रेणी सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हो गई, तो उसे कानूनी और स्थायी मान लिया गया।


2. हर्बर्ट रिसले और जातिवैज्ञानिक सर्वेक्षण (1901–1903)

सर हर्बर्ट होप रिसले, जो उस समय भारत के जनगणना आयुक्त थे, ने न सिर्फ सामाजिक, बल्कि नस्ली दृष्टिकोण से भी भारतीयों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया।

  1. एंथ्रोपोमेट्री
    • नासिका सूचकांक, खोपड़ी के आयाम और कद मापकर जाति को नस्ल से जोड़ने का प्रयास।
    • उच्च जातियों को “आर्य features” और निम्न जातियों को “द्रविड़ीय traits” से जोड़ने के निष्कर्ष।

  2. जातिवैज्ञानिक टिप्पणियाँ
    • 4,000 से अधिक जातियों की रीति-रिवाज, वस्त्र और भाषा का दस्तावेजीकरण।
    • 1903 में प्रकाशित Ethnographic Atlas of India, जिसने जातिगत पूर्वाग्रहों को मज़बूती से स्थापित किया।

  3. नस्लीय पदानुक्रम
    • ब्राह्मणों और राजपूतों को “शुद्ध” नस्ल का दर्जा।
    • दलित और आदिवासी समूहों को “Primitive” या “quasi-savage” कहकर लेबल करना।

रिसले का यह सर्वेक्षण यह धारणा पुष्ट करता है कि जाति कोई सामाजिक अभ्यास नहीं, बल्कि जैविक सार है।


3. राष्ट्रीय जनगणना का विस्तार (1901–1931)

1901 से 1931 के बीच चार समग्र जनगणनाओं ने जाति डेटा की बारीकी बढ़ाई:

जनगणना वर्षदर्ज जातियाँप्रमुख विकास
1901लगभग 4,000राष्ट्रीय स्तर पर पहली विस्तृत जाति सूची
1911लगभग 4,300उपजातियों और क्षेत्रीय विविधताओं का समावेश
1921लगभग 4,528जातिगत दर्जे को लेकर विवादों का उभरना
1931लगभग 4,635स्वतंत्रता से पहले अंतिम पूर्ण जाति जनगणना

प्रत्येक दौर में विभिन्न समूह कलेक्टरों से “उच्च” दर्जा प्राप्त करने की याचिका करने लगे, जिससे स्थानीय स्तर पर सीमित संघर्ष अब समग्र छवि में उभरने लगे।


4. कानूनी अधिनियम और भूमि संबंधी क़ानून

जाति श्रेणियाँ अब अंग्रेजी कानूनों के माध्यम से लागू होने लगीं:

  • पंजाब अलीनेशन ऑफ लैंड एक्ट (1900)
    केवल “कृषि जातियों” को भूमि खरीदने की अनुमति, जिससे जाति गतिशीलता स्थिर हो गई।

  • क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट (1871)
    कुछ जातियों को “अपराधी” घोषित कर निगरानी, जबरन बसावट और आवागमन प्रतिबंधों के अधीन किया गया।

  • मद्रास और बॉम्बे भूमि अधिकार
    अदालतों ने जातिगत उत्तराधिकार और किरायेदारी नियमों को मानते हुए अक्सर मनुस्मृति या अन्य हिंदू विधि ग्रंथों का हवाला दिया।

इन कानूनों ने जातिगत विभाजन को संपत्ति अधिकारों और आपराधिक संहिता में सख्ती से पिरो दिया।


5. विभाजन और शासन: अलग निर्वाचन एवं सामरिक नस्लें

एकजुट विरोध को रोकने के लिए उपनिवेशवादी सरकार ने विभाजनकारी नीतियाँ अपनाईं:

  • अलग निर्वाचन
    मोर्ले-मिन्टो सुधार (1909) और सामुदायिक पुरस्कार (1932) ने धर्म और जाति के आधार पर विधानसभाओं में सीटें आरक्षित कीं।

  • सामरिक नस्ल सिद्धांत
    भारतीय सेना में “लड़ाकू नस्लों” (Punjabi Muslims, Sikhs, Gurkhas, Jats) की भर्ती को प्राथमिकता, जबकि दलित और आदिवासी समूह अपेक्षाकृत वंचित रहे।

  • पुलिस और प्रशासन
    स्थानीय स्वशासन निकाय जाति आधार पर संवैधानिक बने, गांव के मुखिया अक्सर ऊँची जातियों से नियुक्त किए गए।

इन नीतियों ने जातीय पहचान को औपनिवेशिक सत्ता बनाए रखने का हथियार बना दिया।


6. शिक्षा, मिशनरियाँ और जातिगत भूमिकाओं का पुनर्मजबूतीकरण

स्कूल की पाठ्यपुस्तकें, मिशनरी रिपोर्ट और कॉलेज पाठ्यक्रम जातिगत पदानुक्रम को पुष्ट करने में सहायक रहे:

  • ब्रिटिश-लेखित इतिहास ने वैदिक आर्यों को सभ्यता का सर्वोच्च मानदंड दिखाया।
  • मिशनरी दस्तावेजों ने जाति की आलोचना की, परन्तु अक्सर अनुवाद के लिए ब्राह्मणों पर निर्भर रहे।
  • राज्यों ने छात्र रजिस्टरों में जाति संकेत अनिवार्य किए, जिससे बचपन से ही विभाजन सुदृढ़ हुआ।

इसी प्रक्रिया में साक्षरता के साथ जातिगत चेतना भी पनपी—युवा भारतीयों ने अपने आप को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से देखना शुरू कर दिया।


7. अभिलेखीय दृष्टिकोण: जनगणना आयुक्त और रिसले के विचार

“जातिगत संबंध वर्तमान में हिंदुओं में किसी भी प्रकार की सामाजिक या राजनीतिक समानता को रोकने वाला सबसे शक्तिशाली कारक हैं। इन्हें बाधित करना सामाजिक अराजकता को आमंत्रित करने जैसा होगा।”
— सर हर्बर्ट रिसले, एथनोग्राफिक सर्वे ऑफ इंडिया, 1903

“इसके अलावा, जाति को केवल स्थानीय प्रथा के रूप में मानना अनुचित है। हमारा कर्तव्य इसे एक समान कोड में बदलना है, ताकि राज्य के लिए इसे समझना और प्रबंधित करना संभव हो सके।”
— जनगणना आयुक्त रिपोर्ट, 1883

ये टिप्पणियाँ दिखाती हैं कि उपनिवेशवादी उद्देश्य—सामाजिक स्थिरता के नाम पर कृत्रिम एकरूपता लाना—कैसे जातिगत बहुलता को कठोरता में बदल गया।


8. उपनिवेशोत्तर भारत पर स्थायी प्रभाव

स्वतंत्र भारत ने कानूनी स्तर पर जातिगत भेदभाव खत्म कर दिया, फिर भी अंग्रेजों द्वारा की गई कोडिंग ने गहरे घाव छोड़े:

  • कठोर जाट पहचान
    जनगणना-सृजित श्रेणियाँ वोटर लिस्ट, आरक्षण और कल्याण योजनाओं में आज भी कायम हैं।

  • राजनीतिक आंदोलन
    जाति मुख्य राजनीति का आधार बन गई, नेता विशेष जाति समूहों के समर्थन के लिए मंच तैयार करते हैं।

  • सामाजिक कलंक
    जो जातियाँ कभी औपनिवेशिक कानूनों द्वारा “अपराधी” घोषित थीं, उन्हें आज भी पूर्वाग्रह और कड़ी निगरानी झेलनी पड़ती है।

वही औजार—सांख्यिकीय जनगणना, कानूनी जाति सूचियाँ, प्रशासनिक कोटे—अब आज़ादी के बाद सामाजिक न्याय और विभाजन दोनों में काम आ रहे हैं।


निष्कर्ष

1871 से 1931 के बीच ब्रिटिशों ने भारत की गतिशील जाति प्रणाली को एक कठोर, अपरिवर्तनीय ढांचे में बदल दिया।

जनगणना, नस्लीय मानवशास्त्र, संपत्ति और आपराधिक क़ानून, तथा विभाजित-जाल नीतियों ने सामाजिक पहचान को अपरिवर्तनीय बना दिया।

इस इतिहास को समझना आवश्यक है—न सिर्फ समकालीन जातिगत संघर्षों की जड़ों को पहचानने के लिए, बल्कि उस लचीलापन और गतिशीलता को पुनर्स्थापित करने के लिए जो उपनिवेश से पहले भारतीय समाज की विशेषता थी।


अग्रिम पठन सामग्री

  • “The Ethnographic Atlas of India,” सर हर्बर्ट होप रिसले (1903)
  • “Caste and Race in India,” जी.एस. घुरे (1932)
  • “Colonialism and Caste,” निकोलस डिर्क्स (2001)
  • “The Criminal Tribes Act,” मीना राधाकृष्ण (2015)